Saturday, March 16, 2013

शांकर-वेदान्तीय जगत् : एक तार्किक परीक्षण
(ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन के विशेष सन्दर्भ में)


सारांश

“सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म” श्रुतिवाक्य का आधार लेकर अद्वैत-वेदान्त दर्शन के प्रतिष्ठापक आचार्य शंकर ने “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या” रूपी महान वेदान्त वाक्य का उद्घोष किया है जिससे संसार की बाह्य वस्तुओं की अविद्यमानता सिद्ध हो जाती है । परन्तु इस नानाविधात्मक जगत् में वस्तुओं की स्थिति का प्रत्यक्ष अवलोकन किया जाता है तथा आधुनिक विज्ञान भी इस वस्तु-जगत् की सत्यता को स्वीकार करता है यद्यपि यह निरन्तर परिवर्तनशील है । अतः उक्त श्रुतिवाक्य दर्शन के तत्त्वमीमांसीय क्षेत्र में एक बृहत् कठिनाई उपस्थित कर देता है । पुनश्च आचार्य शंकर ने जगत् सम्बन्धी दृष्टिकोण को परिप्रकाशित करने के लिए भ्रम, स्वप्न, मायाजाल आदि के रूप में उसका वर्णन कर रज्जु-सर्प, सीपी-चाँदी, घटाकाश-महाकाश आदि विभिन्न दृष्टान्तों का समुल्लेख किया है । ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन इस जगत् सम्बन्धी विचारधारा के प्रसंग में वैज्ञानिक व व्यावहारिक ज्ञान को संयोजित कर तार्किक रीति से अद्वैत-वेदान्त दर्शन के उपर्युक्त मतों का खण्डन करता है तथा जगत् सम्बन्धी एक वास्तविक दृष्टिकोण प्रदान करने का प्रयत्न करता है । प्रस्तुत शोधलेख मुख्य रूप से शांकर वेदान्तीय जगत् का ब्रह्माकुमारीज़ दृष्टिकोण की ओर से एक समीक्षणात्मक अनुशीलन है ।

उपक्रम

आधुनिक विज्ञान के अनुसार जगत् की वस्तुएँ वास्तविक हैं । वे द्रव्य पर प्रकृति की विभिन्न प्रक्रियाओं तथा विभिन्न शक्तियों की क्रिया के परिणाम तथा फल है । इन्द्रियानुभव से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि जगत् की वस्तुएँ उस सामग्री से नहीं बनी हैं जिससे स्वप्न या भ्रम का सृजन होता है । निश्चित रूप से जगत् की वस्तुएँ वैसी नहीं हैं जैसी वे दिखाई देती हैं क्योंकि मूलतः वे अणुओं से बनी हैं, जो परमाणुओं से निर्मित हैं और परमाणु इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन या उप-परमाणु कणों से निर्मित हैं, जो प्रचण्ड वेग से कंपित होते हैं और ये उप-परमाणु कण वस्तुतः द्रव्य ऊर्जा है और यह ऊर्जा द्रव्य, द्रव्य रूपों में परिवर्तनीय हैं । यद्यपि वस्तुएँ एक अवधि तक गैस, द्रव या ठोस रूप में रहती हैं तथापि उनमें सतत परिवर्तन होता रहता है । और अन्ततः वे अपने घटकों, प्रोटॉनों, इलेक्ट्रॉनों तथा न्यूट्रॉनों में सखंडित या विघटित हो जाती हैं । प्रत्येक कण विभाजित या विघटित होता है । इस प्रकार, यद्यपि जगत् की वस्तुएँ वस्तुतः वैसे नहीं हैं जैसी दिखाई देती हैं । और चाहे कितनी भी धीमी गति से विघटित वा परिवर्तन होती रहती हैं, तथापि वे उन वस्तुओं जैसी नहीं है जो किसी स्वप्न में या भ्रम में दिखाई देती हैं ।

किन्तु अद्वैतवेदान्त दर्शन के प्रवर्तक शंकराचार्य ने “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म” श्रुतिवाक्य को आधार बनाकर “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या” रूपी वेदान्त वाक्य का उद्घोष किया है जिससे संसार की बाह्य वस्तुओं की अविद्यमानता सिद्ध हो जाती है । अर्थात् जगत् एक स्वप्न की भाँति मिथ्या है, भ्रम है और वस्तुरूप जगत् का अस्तित्व ही नहीं है । इस सन्दर्भ में ब्रह्माकुमारी संस्थान के मुख्य प्रवक्ता ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा अभिधान करते हैं कि उक्त श्रुतिवाक्य दर्शन के तत्त्वमीमांसीय क्षेत्र में एक बृहत् कठिनाई उपस्थित कर देता है जिसमें उल्लिखित है कि ईश्वर अनन्त है, तो अन्य सत्ताओं के अस्तित्व की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती । किन्तु व्यावहारिक जीवन में यह स्पष्टतः देखा जाता है कि जगत् में असंख्य निर्जीव और भौतिक वस्तुएँ हैं और अगणित जीवित प्राणी भी हैं । यदि ईश्वर को अनन्त विस्तार कहा जाए तो इन असंख्य रूपों के अस्तित्व को स्पष्ट कैसे किया जा सकता है?

इसलिए यह प्रश्न उठता है कि अनेक जीवों और वस्तुओं के दृश्यमान अस्तित्व का मेल ईश्वर के अनन्त विस्तार के साथ कैसे बिठाया जाये?- इस गुत्थी को सुलझाने के लिए शंकराचार्य ने वस्तुतः जीवों और वस्तुओं के पृथक् अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया है । शंकर के अनुसार इतने अधिक जीवों और वस्तुओं का अस्तित्व केवल एक आभास, एक भ्रम या एक अवास्तविकता है । यह केवल जो वास्तविक है, उस पर अवास्तविक का मात्र एक अध्यारोप है । अन्य शब्दों में, जिस प्रकार अन्धकार के कारण मनुष्य को रस्सी साँप जैसी दिखाई देती है यद्यपि वह साँप नहीं है, उसी प्रकार अज्ञान के कारण मनुष्य ब्रह्म में जगत् को देखता है । अर्थात् जिस प्रकार अन्धकार में अस्पष्ट दिखाई देने वाली रस्सी को साँप मान लिया जाता है, उसी प्रकार जीव को (ब्रह्म या परम सत्ता से) भिन्न मान लिया जाता है । शंकराचार्य अपने गुरु गौड़पादाचार्यकृत गौड़पादकारिका से उद्धरण प्रदान कर कथन करते हैं कि परम सत्य यह है न तो किसी का विलय होता है और न सृजन होता है, न तो कोई व्यक्ति बन्धन में होता है और न कोई आध्यात्मिक प्रयास करता है, न तो कोई मुक्ति पाने की कोशिश करता है और न कोई मुक्त होता है ।

पुनश्च आदि शंकराचार्य ने वर्णित किया है कि अज्ञान या माया के द्वारा भ्रमित होने के कारण जीव ब्रह्म में जगत् को देखता है अर्थात् ब्रह्म जगत् के रूप में आभासित होता है । एवं इसी भ्रमरूप जगत् की अवास्तविकता या अविद्यमानता को प्रकट करने के लिए अद्वैतवादी आचार्य शंकर ने अनेक दृष्टान्तों व उदाहरणों का प्रदर्शन किया है ।

1. सीपी का उदाहरण, जो चन्द्रमा के प्रकाश में चाँदी के टुकड़े जैसी दिखाई देती है ।
2. मरीचिका का दृष्टान्त, जो तप्त सूर्य प्रकाश में दूर से जल जैसी प्रतीत होती है ।

किन्तु ब्र.कु. जगदीश चन्द्र उपर्युक्त दृष्टान्तों का तार्किक विश्लेषण व परीक्षण कर जगत् सम्बन्धी विचारधारा के बारे में एक उपयुक्त तथ्य को सर्वसमक्ष प्रकट करने का प्रयत्न करते हैं जिसका उल्लेख अधुना किया जा रहा है ।

भ्रम के घटित होने के लिए आवश्यक स्थितियाँ

जगदीश चन्द्र वर्णन करते हैं कि भ्रम के घटित होने के लिए निम्नोक्त स्थितियों की आवश्यकता होती है-

1. प्रथमतः, ऐसी स्थितियाँ विद्यमान हों कि वस्तु का अवास्तविक या विकृत रूप दिखाई दे । उदाहरणार्थ, सूर्य का प्रकाश हो जिससे रेत के टीले उन पर पड़ने वाले प्रकाश को प्रतिबिम्बित तथा विकीर्णित करें और जल की तरंगों का मिथ्या आभास उत्पन्न करें । विज्ञान के छात्र यह जानते हैं कि जब पेंसिल को जलभरे ग्लास में डाला जाता है तो जहाँ वह जल की सतह को छूती है वहाँ वह टूटी हुई दिखाई देती है । दो माध्यमों अर्थात् जल और वायु के बीच के अन्तर के कारण अपवर्तन होता है । टूटी हुई पेंसिल का आभास उत्पन्न होने के लिए अपवर्तन घटित होने वाली स्थिति का होना आवश्यक है । उसी प्रकार सीपी चाँदी के टुकड़े जैसी आभासित होने के लिए या चाँदी का टुकड़ा सीपी जैसा आभासित होने के लिए या रस्सी साँप जैसी या साँप रस्सी जैसा दिखाई देने के लिए अन्धकार या अर्ध प्रकाश की स्थिति का होना आवश्यक है ।

2. द्वितीयतः, वास्तविक वस्तु तथा भ्रमवश दिखाई देने वाली वस्तु के बीच साम्य होना चाहिए । उदाहरणार्थ, साँप और रस्सी तथा सीपी और चाँदी के टुकड़े में आभास साम्य है जिसके कारण भ्रम घटित होता है । भ्रमवश किसी रस्सी को हाथी नहीं समझा जाता है क्योंकि वे दोनों नितान्त असमान है । यदि रेत के टीले तरंगों जैसे होते या यदि वे प्रकाश का परावर्तन इस प्रकार न करते मानो कि जल हो तो कोई भ्रम उत्पन्न न होता ।

3. तृतीयतः, भ्रम की स्थिति के लिए यह भी आवश्यक है कि दोनों वस्तुएँ, उदाहरणार्थ पहले साम्यानुमान में रस्सी और साँप तथा दूसरे साम्यानुमान में चाँदी का टुकड़ा और सीपी वास्तविक हों । इसके अतिरिक्त उस प्रेक्षक ने (जिसे भ्रम होता है) पहले कभी साँप और रस्सी को तथा सीपी और चाँदी के टुकड़े को देखा हो । यदि इन वस्तुओं में से केवल एक ही वस्तु का अस्तित्व होता और दूसरी वस्तु का अस्तित्व न होता तो एक को देखकर दूसरे का भ्रम नहीं हो सकता ।

4. चतुर्थतः, भ्रम तब संघटित होता है जब देखने वाले व्यक्ति के पास अधिदृष्टि या अधिज्ञान न हो, बल्कि वह सदोष आभासों या त्रुटिपूर्ण प्रत्यक्षणों का शिकार हो जाता हो । यदि कोई व्यक्ति रेत के टीले को रेत के टीलों की तरह देख सकता है तो वह उनकी चकाचौंध से भ्रमित होकर जल की तरंगें नहीं मान सकता । उसी प्रकार यदि किसी व्यक्ति को अपवर्तन की प्रघटना का ज्ञान हो तो वह टूटी हुई पेंसिल के आभास से भ्रमित नहीं हो सकता । यदि किसी व्यक्ति के पास पूर्ण ज्ञान हो तो वह साँप को रस्सी या रस्सी को साँप नहीं मान सकता ।

उपर्युक्त बिन्दुओं पर विचार कर जगदीश चन्द्र एक निष्कर्ष उपस्थापित करते हैं-
i. यदि केवल अनन्त ब्रह्म या ईश्वर को छोड़कर कुछ भी नहीं होता तो असंख्य वस्तुओं का कोई भ्रम नहीं हुआ होता, क्योंकि ईश्वर या ब्रह्म और नाम तथा रूपधारी पार्थिव वस्तुओं में ऐसा कोई साम्य नहीं है जैसा कि साँप और रस्सी में है या सीपी और चाँदी के टुकड़े में हैं । ब्रह्म या ईश्वर निराकार प्रकाश है जो कि सत्य-ज्ञान-अनन्त है, जबकि जगत् की वस्तुओं का आकार सीमित है और उनमें संपूर्ण ज्ञान नहीं या अनन्त ज्ञान नहीं है ।

ii. इसके अतिरिक्त, केवल उसी को भ्रम हो सकता है जिसके पास पूर्ण ज्ञान नहीं है, जो उपरोक्त उल्लिखित हो चुका है । इसलिए ईश्वर या ब्रह्म जिसके पास अनन्त ज्ञान है, वह भ्रमित नहीं हो सकता । यदि ईश्वर को भ्रम होता है तो वह न तो पूर्ण और न सर्वशक्तिमान् है और इसलिए वह ईश्वर ही नहीं है ।

iii. पुनश्च रस्सी को साँप मानने या सीपी को चाँदी का टुकड़ा मानने का भ्रम तब होता है जब अधिक अन्धकार हो या अधिक प्रकाश हो । उसी प्रकार ईश्वर में नामों और रूपों वाले जगत् का भ्रम तब होता है जब द्रष्टा के पास अंशतः ज्ञान का प्रकाश हो और अंशतः अज्ञान का अन्धकार हो । दूसरे शब्दों में, इसका अर्थ यही है कि केवल मानव प्राणी को ही, जिसका ज्ञान अपूर्ण होता है और जो अंशतः प्रदीप्त हो, भ्रम हो सकता है ।

ब्र.कु. जगदीश शंकराचार्य और उनके अद्वैतवादी अनुयायियों की विचार-परम्परा पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि अद्वैतवादी ईश्वर या ब्रह्म के सिवाए किसी भी जीव के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते, इसलिए यदि इस सिद्धान्त को, जो केवल एक अनन्त ईश्वर के अस्तित्व का प्रतिपादन करता है और अन्य जीवों या भौतिक वस्तुओं के अस्तित्व को नहीं मानता, स्वीकार कर लिया जाये तो भ्रम घटित हो ही नहीं सकता ।

दूसरी ओर, ब्र.कु. जगदीश चन्द्र यह उल्लेख करते हैं कि शंकराचार्य द्वारा प्रस्तुत भ्रम का साम्यानुमान ईश्वर के अस्तित्व के साथ-साथ भौतिक वस्तुओं और जीवों के जगत् के अस्तित्व को पहले से ही स्वीकार कर चलता है, जो पूर्वोक्त उल्लिखित हुआ है कि रस्सी को साँप मानने के भ्रम का साम्यानुमान दोनों के अस्तित्व को पहले से ही मानकर चलता है । यदि ईश्वर या ब्रह्म का अस्तित्व ही एकमात्र अस्तित्व होता और अन्य भौतिक वस्तुओं तथा मनुष्यों का अस्तित्व न होता तो पहले-दूसरे में भ्रम न होता । इससे यह प्रकट होता है कि शंकराचार्य द्वारा प्रस्तुत भ्रम का साम्यानुमान उनके कथन का समर्थन नहीं करता, जैसा कि उनका आशय है ।

इसके अतिरिक्त, यदि ईश्वर या ब्रह्म ही एकमात्र वास्तविकता है और अन्य जीव अवास्तविक हैं या कम से कम ईश्वर से उनके भेद की भावना अवास्तविक है या एक भ्रम है तो प्रश्न उठता है कि “यह भ्रम ईश्वर के मामले में कैसे घटित हुआ?” यदि ईश्वर का ज्ञान पूर्ण है और अपरिवर्तनशील (सत्य) है तो किसी भी परिस्थिति में उसके लिए यह सोचना असम्भव होना चाहिए कि वह एक भौतिक वस्तु या एक जीव है, जो कि न तो पूर्ण है और न अनन्त है । जिस प्रकार किसी रस्सी को साँप मान लेना या किसी साँप को रस्सी मान लेना मनुष्य की अज्ञानता है । उसी प्रकार यदि ईश्वर स्वयं को अनेक अपूर्णताओं से युक्त और कर्म बन्धनों से आबद्ध तथा सुख-दुःख से प्रभावित जीव के रूप में कल्पित करें तो यह उसकी अज्ञानता होगी ।

इस प्रकार ब्र.कु. जगदीश चन्द्र तर्कयुक्त प्रमाणों के द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं कि कोई भी साम्यानुमान या उदाहरण उपनिषद् के सूत्र की पुष्टि नहीं करता, जिसको प्रारम्भ में उद्धृत किया गया है और जो शंकराचार्य के विश्वास के मूलाधार हैं और उनके तर्कों का मुख्य स्रोत हैं । अतः ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन यह प्रतिपादित करता है कि या तो सूत्र गलत है या फिर उसका अर्थ उस अर्थ से भिन्न है जो शंकराचार्य द्वारा प्रदत्त है । ब्र.कु. जगदीश अभिधान करते हैं कि संभवतः उक्त श्रुतिवाक्य का अर्थ यह है कि ईश्वर का ज्ञान और सत्य अनन्त है । व्यावहारिक ज्ञान के आधार से यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है कि जगत् में असंख्य जीव तथा असंख्य भौतिक वस्तुएँभी विद्यमान हैं । इसलिए तार्किक दृष्टि से गलत साम्यानुमान देकर उनके अस्तित्व का खण्डन करना अनुभव के विपरीत होगा । अतः जगत् के प्रति शांकर दृष्टिकोण दोषपूर्ण है ।

पुनश्च शंकराचार्य ने अन्य उदाहरणों के माध्यम से यह प्रतिपादित करने का प्रयास किया है कि जीव और ब्रह्म या ईश्वर एक ही हैं । किन्तु जगदीश हसीजा उक्त शंकर-प्रदत्त दृष्टान्तों का भी तार्किक रीत्या खण्डन करते हैं । सर्वप्रथम जीव-ब्रह्म की तुलना में घटाकाश-महाकाश के साम्य का विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है ।

‘घटाकाश-महाकाश’ का दृष्टान्त

शंकराचार्य गौड़पादभाष्य में जीव-ब्रह्म का ऐक्य स्थापित करने के लिए कथन करते हैं कि जिस प्रकार विभिन्न घड़ों के भीतर के अवकाश वस्तुतः एक ही अवकाश है, यद्यपि वे विभिन्न घड़ों की सीमित दीवारों के कारण विभिन्न अवकाश दिखाई देते हैं, उसी प्रकार सभी आत्माएँ वस्तुतः एक परम आत्मा, ब्रह्म या परमात्मा हैं, जो कि केवल (शरीरों, गुणों या उपाधियों की) परिसीमाओं के जरिए अनेक दिखाई देती हैं । जिस प्रकार घड़े आदि के टूट जाने पर अवकाश (जो कि पहले उनसे परिस्कृत या घिरा हुआ था) अवकाश में विलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार जीव परमात्मा में विलीन हो जाते हैं । इसके अतिरिक्त जैसे किसी एक घड़े से परिस्कृत अवकाश को रेत (या मिट्टी) या धुम से भर दिया जाये तो वह दूसरे अवकाशों को प्रभावित नहीं करता, उसी प्रकार सुख आदि सभी जीवों को प्रभावित नहीं करते । अवकाश विभाजित किये बिना रूप, क्रिया आदि उन विभिन्न घड़ों के होते हैं, यही बात जीवों पर भी लागू होती है । इसके अतिरिक्त, जिस प्रकार विभिन्न घड़ों द्वारा परिस्कृत अवकाश न तो महाकाश का एक प्रभाव है न एक अंश है, उसी प्रकार जीवात्मा न तो परमात्मा का एक प्रभाव है और न एक अंश है । जीवात्माओं और परमात्मा की अनन्यता में कोई भेद नहीं है और उसका विवेचन किया जाना चाहिए । सर्वाधिक उपयुक्त कथन यह है कि अनेकता की निंदा की जानी चाहिए ।

ब्र.कु. जगदीश चन्द्र उपरोक्त कथन के विषय में स्वकीय अभिमत प्रदान करते हुए उल्लेख करते हैं कि यह कहने की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती कि विभिन्न घड़ों द्वारा परिस्कृत और बाहर के महा अवकाश और घड़ो के टूटने तथा परिणामस्वरूप लघु अवकाश के महा अवकाश में विलीन हो जाने का साम्यानुमान जीवों और ईश्वर के मामले में लागू नहीं होता । क्योंकि जबकि घड़े विद्यमान होते हैं और टूटते हैं, शंकराचार्य (जीवों को सीमा में बांधने वाले) शरीर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते, वे बिना किसी अन्य के एकमात्र एक अनन्त ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते हैं । दूसरी बात यह है कि घड़ों द्वारा अभिघृत या परिस्कृत अवकाश और सभी के चारों ओर फैला हुआ बाहर का महा अवकाश ज्ञानपूर्ण (ज्ञानम्) नहीं है और उस प्रतीक द्वारा अन्तश्चेतनायुक्त नहीं है, इसलिए उसके अन्य से प्रभावित होने या उसके परम आत्मा में विलीन हो जाने का प्रश्न ही नहीं है । जीव अन्तश्चेतनायुक्त प्राणी है और उनमें व्यक्तिगत संस्कार हैं और उनके अपने-अपने शरीरों के विनष्ट हो जाने पर (इस साम्यानुमान में घड़ों के टूटने से तुलनीय) वे परम आत्मा में विलीन नहीं हो सकते, जो कि पूर्ण और ज्ञानपूर्ण है । वस्तुतः जीव उतने पूर्ण कभी भी नहीं हो सकते जितना कि ईश्वर है, क्योंकि यदि वे इतने पूर्ण हो सकते तो उनके सामने भ्रमित होने का अवसर न आता या वे अज्ञान की अवस्था में न होते । इसके अतिरिक्त, इस बात का स्मरण रखा जाना चाहिए कि एक जीव का सुख दूसरों को प्रभावित करता है, एक मनुष्य के सुख की अवस्था पौधों तक को भी प्रभावित करती है- यह विज्ञान द्वारा सिद्ध हो चुका है । इसलिए घटाकाश आदि का साम्यानुमान ईश्वर तथा जीवों के मामले में किसी भी प्रकार से लागू नहीं होता, क्योंकि ईश्वर पूर्ण अन्तश्चेतनायुक्त सत्ता है और जीव भ्रम के वशीभूत हैं इसलिए प्रभावित होते हैं तथा अपूर्ण हैं और अपने बीच बहुत असमान होते हैं ।

पुनश्च आचार्य शंकर मायाजाल का उदाहरण प्रस्तुत कर जगत् के अविद्यमानता की बात का समर्थन करते हैं । परन्तु जगदीश इस विचार की भी समीक्षा करते हैं ।

‘मायाजाल’ का साम्यानुमान

आचार्य शंकर प्रदत्त मायाजाल के साम्यानुमान को त्रुटिपूर्ण सिद्ध करते हुए ब्र.कु. जगदीश चन्द्र उल्लेख करते हैं कि वस्तुतः, मायाजाल और कुछ नहीं है बल्कि करतब या हाथ की सफाई है । किसी जादूगर द्वारा दिखाई गई वस्तुएँलोगों के सामने अचानक आती हैं और जादूगर उन वस्तुओं को चतुराई से और धूर्तता से छिपाता या प्रकट करता है, इसलिए दर्शक उसके करतबों को पकड़ नहीं पाते । इसके अतिरिक्त, मायाजाल के खेल के लिए जादूगर का होना, दर्शकों का होना और दिखाई जाने वाली अनेक वस्तुओं का होना आवश्यक है और यह भी आवश्यक है कि दर्शक दिखाई जाने वाले करतबों से परिचित हों । किन्तु इस मामले में, शंकराचार्य ईश्वर के सिवाए किसी के भी अस्तित्व में विश्वास नहीं करते । इसलिए मायाजाल का साम्यानुमान, जिसके लिए अनेक व्यक्तियों तथा वस्तुओं की जरूरत होती है, एक तर्क दोष है, इस प्रयोजन के लिए वह बिल्कुल अनुपयुक्त है ।

‘स्वप्न’ का साम्यानुमान

पुनश्च शंकराचार्य ने स्वप्न का उदाहरण देकर दृढ़तापूर्वक यह प्रतिपादित करने का प्रयत्न किया है कि इस जगत् में, जिसमें असंख्य मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़े और भौतिक वस्तुएँ हैं, उनकी कोई वास्तविकता नहीं है । वह केवल वास्तविक दिखाई देती है, यद्यपि सत्य तो यह है कि वह वास्तविक नहीं है ।

शंकराचार्य और उनके अनुयायी अन्य विद्वानों का जगत् विषयक इस विचार का खण्डनात्मक विधि से मन्तव्य प्रस्तुत करते हुए जगदीश चन्द्र अभिधान करते हैं कि स्वप्न, जागृत अवस्था में देखी गई वस्तुओं पर निर्भर है क्योंकि जिन वस्तुओं और व्यक्तियों को हम स्वप्न में देखते हैं उन्हें हम भूतकाल में, बाह्य जगत् में, किसी समय देख चुके होते हैं, भले ही स्वप्नों में हम जो देखते हैं वह उन वस्तुओं और व्यक्तियों का विशृंखलित और अजीब संयोजन होता है । उदाहरणार्थ, हम यह देख सकते हैं कि एक गाय चन्द्र की ओर उड़ रही है या एक तश्तरी चम्मच सहित भाग रही है । स्पष्ट है कि हमने बाह्य जगत् में गाय भी देखी हऔर चन्द्र भी देखा है और हमने पक्षियों या पतंगों जैसी कई वस्तुओं को आकाश में उड़ते हुए भी देखा है और हमने इन स्मृतियों, प्रभावों को चन्द्र की ओर उड़ती हुई एक गाय में संयोजित कर दिया है । इसी प्रकार एक अन्य उदाहरण देकर यह स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं कि किसी बहन को भाई के साथ भागते हुए देखा और तश्तरी तथा चम्मच को भी देखा है, और अब हमारे स्वप्न में ये स्मृतियाँ एक विरूपित या विकृत ढंग से संयुक्त हो जाती हैं इसलिए हम किसी तश्तरी को चम्मच के साथ भागते हुए देखते हैं । निःसन्देह, यह एक अति कल्पना है किन्तु स्वप्न में हम जिन वस्तुओं और व्यक्तियों को देखते हैं वे बाह्य जगत् में वास्तविक हैं, जिन्हें हमने अपनी इन्द्रियों से देखा था । अतः बाह्य जगत् अवास्तविक है और एक स्वप्न जैसा है, कहने के बजाय यह कहना उचित है कि स्वप्न लोक में हम जिन वस्तुओं को देखते हैं उनका बाह्य जगत् में वास्तविक अस्तित्व है ।

पुनश्च कोई स्वप्न किसी स्वप्न देखने वाले व्यक्ति द्वारा देखा जाता है । चूँकि शंकराचार्य के अनुसार, केवल ईश्वर के सिवाए, किसी का भी वास्तविक अस्तित्व नहीं है जिसे वे ब्रह्म कहते हैं, तो ईश्वर या ब्रह्म ही जगत् को अपने स्वप्न में देखता है । चूँकि स्वप्न स्मृति के परिणाम स्वरूप उद्भासित होते हैं और स्मृति बाह्य जगत् में वस्तुओं को देखने से बनती है, इसलिए इसका अर्थ यह है कि बाह्य जगत् विद्यमान है, जिसे कि ईश्वर या ब्रह्म ने देखा है और उसके पास उसकी वस्तुओं के स्मृति-चिह्न हैं । यदि बाह्य जगत् विद्यमान नहीं होता तो स्वप्न नहीं होते, क्योंकि स्मृति-चिह्न नहीं होते । इसलिए शंकराचार्य द्वारा प्रयुक्त स्वप्न के साम्यानुमान से यह प्रमाणित होता है कि जगत् विद्यमान है ।

इसके अतिरिक्त, यह कहना कि ईश्वर या ब्रह्म स्वप्न देखता है, ईश्वर के प्रति समीचीन कथन नहीं है । यदि कोई व्यक्ति यह कहता है कि ईश्वर स्वप्न देखता है तो वह ईश्वर की महिमा को नहीं बढ़ाता क्योंकि स्वप्न केवल स्वप्न देखने वाले की किन्हीं अपूर्णताओं, किन्हीं दबी हुई इच्छाओं, किन्हीं छिपी हुई भावनाओं या किन्हीं अनभिव्यक्त विचारों को प्रदर्शित करते हैं । यदि ईश्वर (ब्रह्म) सत्यम्, ज्ञानम्, अनन्तम् है तो एक परिपूर्ण सत्ता होने के कारण उसे स्वप्न नहीं दिखाई दे सकते । इसलिए यह विश्वास कि ईश्वर या ब्रह्म अनन्त है और उससे भिन्न वस्तुएँ या व्यक्ति अविद्यमान है और किसी स्वप्न में देखी गई वस्तुओं की भाँति है- एक गलत प्राक्कल्पना पर आधारित है ।

ब्र.कु. जगदीश चन्द्र पुनः कथन करते हैं कि स्वप्न देखना भी मन की एक वास्तविक अवस्था है । वस्तुओं को स्वप्न में देखना और वस्तुओं की अविद्यमानता एक ही बात नहीं है । स्वप्न की अवस्था वस्तुतः जागृत अवस्था के अस्तित्व को सिद्ध करती है और जागृत अवस्था वस्तुओं और व्यक्तिओं की विद्यमानता को सिद्ध करती है । स्वप्नों के निर्देश मात्र हम में जागृत अवस्था की ओर उसके साथ ही बाह्य वस्तुओं की जागरूकता पैदा कर देते हैं ।

वस्तुतः स्वयं शंकराचार्य ने अपने काल की बौद्ध विचारधारा का विरोध करते हुए स्वप्न और जागृत प्रेक्षण की अवस्था के बीच भेद बताया था । इस बारे में उन्होंने स्पष्टतः कहा है - वस्तुतः स्मृति ही इन स्वप्नों को जन्म देती है, जिन्हें मनुष्य देखता है । जागृत अवस्था में मनुष्य उन वस्तुओं को देखता है जो कि उसकी इन्द्रियों के सम्पर्क में आती हैं । स्वप्नों और जागृत प्रेक्षणों में एक स्पष्ट विभेद है । स्वप्न वस्तुओं के बिना उद्भूत होते हैं जबकि जागृत प्रेक्षण में वस्तुएँ होती हैं । स्वप्न में “मैं अपने इच्छित पुत्र को याद करता हूँ, किन्तु उसे पाता नहीं, मैं सहज उसे पाना चाहता हूँ” । किन्तु जाग्रत प्रेक्षणों में, वस्तुएँ विद्यमान होती हैं, इसलिए इस सम्बन्ध में जाग्रत प्रेक्षणों को स्वप्नों की भाँति अवास्तविक कहना संभव नहीं है । दोनों के बीच के भेद का स्पष्टतः अनुभव होता है ।

इसके अतिरिक्त स्वप्न वैसा नहीं है जैसा कि भ्रम है । दोनों में विशाल अन्तर है । भ्रम तब होता है जब कोई व्यक्ति जागृत अवस्था में अपनी इन्द्रियों से कतिपय वस्तुएँ देखता है और सही तथा सच्ची झांकी पाने के बजाए विकृत प्रतिमा पाता है या वास्तविक से भिन्न कोई वस्तु देखता है क्योंकि बाह्य परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं कि वे देखी गई वस्तुओं के बारे में अज्ञानता उत्पन्न कर देती हैं या दोषपूर्ण प्रत्यक्ष होता है या त्रुटिपूर्ण प्रस्तुतीकरण होता है । इसलिए स्वप्न और भ्रम को समान मानना और यह कह देना गलत है कि बाह्य वस्तुओं का अस्तित्व किसी स्वप्न में या किसी भ्रम में दिखाई देने वाले उसके अस्तित्व जैसा है ।

‘अनन्त’ शब्द का अर्थ

ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन के अभिमत को उपस्थापित करते हुए ब्र.कु. जगदीश चन्द्र यह स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं कि ईश्वर या ब्रह्म अनन्त है और ईश्वर या ब्रह्म के सिवाए किसी का भी वास्तविक अस्तित्व नहीं है इसे सिद्ध करने के लिए अद्वैतवादियों द्वारा किये गये सभी प्रयास उसकी पुष्टि नहीं कर पाते । यह सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत तर्क कि जीवात्माओं का अस्तित्व नहीं है और बहुविध भौतिक नामों और रूपों वाला जगत् भी अस्तित्व में नहीं है, बुद्धि तर्क और जीवन के दैनिक अनुभव की कसौटी पर नहीं टिकता । मात्र एक तथ्य ही कि हम भोजन करते हैं और अन्य वस्तुओं का उपयोग करते हैं तथा जीवन के कठोर, वास्तविक समस्याओं का सामना करते हैं, सिद्धान्त का खण्डन करने के लिए पर्याप्त है कि सब कुछ भ्रम है या यह जगत् एक स्वप्न है या मात्र आभास या प्रतीति है । आध्यात्मिक प्रयासों या उन्नति के दृष्टिकोण से भी यह सिद्धान्त का कोई उपयोग नहीं है, क्योंकि जैसा कि उन पर उद्धृत किया गया है, शंकराचार्य ने कहा है कि न तो कोई बन्धन है और न कोई आध्यात्मिक प्रयास है और न कोई बन्धन में है । इसलिए अद्वैतवाद को कोई तार्किक समर्थन प्राप्त नहीं है और न किसी योगी के लिए वह उपयोगी है । इस विश्वास ने कि जगत् विद्यमान नहीं है, निष्क्रियता और पलायनवाद को जन्म दिया है । जगत् का अस्तित्व वास्तवतः है एवं आधुनिक विज्ञान इसे पूर्णतया परिपुष्ट करता है । आचार्य शंकर ने पारमार्थिक दृष्टि से इसको मिथ्या प्रमाणित किया है क्योंकि उनका मुख्य उद्देश्य ब्रह्मानुभूति से है । परन्तु व्यावहारिक एवं पारमार्थिक के मध्य भी कुछ सम्बन्ध अवश्य होना चाहिए । वास्तवतः शाश्वत भौतिक ऊर्जा से बने अल्पकालिक और अस्थायी जगत् में विश्वास, जगत् विषयक एक वास्तविक दृष्टिकोण प्रदान करता है ।

उपसंहार

अद्वैतवेदान्तीय उपर्युक्त गंभीर विश्लेषणात्मक व समीक्षणात्मक अनुशीलन से यह निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि यद्यपि अद्वैतवेदान्त दर्शन ने दार्शनिक जगत् में एक विशिष्ट अथवा उच्च कोटि का स्थान प्राप्त किया हुआ है, परन्तु इस दर्शन द्वारा प्रयुक्त जगत् सम्बन्धी दृष्टान्त उसकी विषय-वस्तु को यथार्थतया प्रमाणित करने में अनुपयुक्तता को प्रदर्शित कर रहे हैं । क्योंकि ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन के मत को उपस्थापित करते हुए ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा ने वैज्ञानिक व व्यावहारिक ज्ञान को आधार बनाकर शांकरवेदान्तीय जागतिक दृष्टिकोण का एक गंभीर तार्किक विश्लेषण कर अनेक न्यूनताओं को प्रकटित कर दिया है । व्यावहारिक दृष्टि से भी जगत् का अस्तित्व प्रत्यक्ष अनुभवसिद्ध है, यद्यपि इस संसार में सूक्ष्म पारमाणविक रीति से अथवा स्थूल रीति से अनेक परिवर्तन निरन्तर हो रहे हैं । यदि जगत् की अविद्यमानता को प्रदर्शित करने का प्रयत्न कोई करता है तो निश्चित रूप से वह स्वयं अपनी अवस्थिति को इस भौतिक जगत् में अस्वीकार कर रहा है । वस्तुतः ब्रह्म अथवा ईश्वर चैतन्य सत्ता का अस्तित्व स्वयंसिद्ध है तो शाश्वत ऊर्जामय जड़ पदार्थ से निर्मित जगत् भी ईश्वर-समतुल्य स्वयंसिद्ध है । दोनों सत्ताएँ सत्य हैं एवं समानान्तरता में अवस्थान करती हैं । अतः मनुष्य स्वयं को एक चैतन्य शक्ति आत्मा समझकर, फिर शरीर रूपी प्रकॄति का उपयोग कर इस जगत् में यथापयोगी कर्म संपादित करना- जगत् के प्रति समुचित दृष्टिकोण प्रदान करता है । अतः किसी भी तात्त्विक विषय के कथन को दार्शनिक, वैज्ञानिक तथा व्यावहारिक दृष्टि का पुट देते हुए उसका तर्कसम्मत व स्वीकृत विवेचन प्रस्तुत करने में ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन अथवा अध्यात्म-विज्ञान एक निष्कर्षभूत प्रमाण सिद्ध होता है ।

सन्दर्भग्रन्थसूची

1. अविनाशी विश्व-नाटक, भाग-2, ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, आबू पर्वत, राजस्थान, पुनर्मुद्रण
2. माण्डूक्यकारिका (गौड़पादकारिका), भाष्यसहित, गीता प्रेस, गोरखपुर, 2000
3. ब्रह्मसूत्र शाङ्करभाष्य-रत्नप्रभा, भाषानुवाद सहित, प्रथम व द्वितीय भाग, भोलेबाबा, भारतीय विद्या प्रकाशन, दिल्ली, 2004
4. वेदान्तसार, सदानन्द योगीन्द्र, अनु. सत्यनारायण श्रीवास्तव, सुदर्शन प्रकाशन, इलाहाबाद, 2000, पुनर्मुद्रण
5. एकादशोपनिषद्, गीता प्रेस, गोरखपुर, 1998
6. धर्म, कर्म और विज्ञान, ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, पाण्डव भवन, आबू पर्वत, राजस्थान, पुनर्मुद्रण
7. भारतीय दर्शन : आलोचना और अनुशीलन, चन्द्रधर शर्मा, मोतीलाल बनरसीदास, दिल्ली, 2004, पुनर्मुद्रण

1 comment:

  1. हरि ॐ ततसत।
    राम राम जी।
    कई वर्षोँ से एक प्रश्न मस्तिष्क में है। कई बुद्धिजीवियों ओर अध्यात्म तत्व के ज्ञाताओं को पूछा लेकिन सन्तोषप्रद उतर नही मिला।
    फिर भी मेरा पूछने का सिलसिला जारी है,शायद कभी कोई संतोषजनक उतर कहि से मिल जाये।
    प्रश्न पर आने से पहले आइये ईश्वर के बारे में आधारभूत या सर्वमान्य राय पर चर्चा करें।
    हम सभी इस बात से सहमत है कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है। ईश्वर ब्रह्मांड के कण कण में व्याप्त है। और सबसे मुख्य बात,,,कृपया गौर करे,,,,,ईश्वर निर्लिप्त है,,अर्थात ईश्वर को किसी से प्रेम नही है ओर किसी से द्वैष नही हैं,, उसे कोई प्रिय नही है,कोई अप्रिय भी नही है,,,ईश्वर स्वयं की कोई इच्छा या कामना नही है,,,,ईश्वर इच्छा, भय, लालच से रहित हैं। ईश्वर अजन्मा,सनातन है।
    वेदों में बताया गया है कि ईश्वर के मन में इच्छा हुई कि मैं एक से अनेक हो जाऊं। मेरा मानना है कि सभी सांसारिक दुखो ओर समस्याओ की जड़ यही से शुरू हुई। प्रश्न भी यहि से शुरू होता है कि जब ईश्वर किसी इच्छा से रहित है तो एक से अनेक होने की क्या जरूरत थी। क्या ईश्वर को अकेले भय लग रहा था? अगर भय लग रहा था तो ईश्वर भय रहित कैसे हुआ?

    मनुष्य को बनाने से पहले क्या ईश्वर खुश नही था?
    आखिर ईश्वर ने मनुष्य को बनाया ही क्यों? ईश्वर सर्वशक्तिमान है,सर्वव्यापक है हमे इस से कोई आपत्ति नही । आपत्ति तो यह है कि ईश्वर ने सर्वशक्तिमान ओर सर्व व्यापक होते हुये भी मनुष्य को क्यो बनाया? कितना अच्छा होता,,,सर्वशक्तिमान ईश्वर अकेला ही रहता,,मनुष्य का अस्तित्त्व ही नही रहता तो आज हमें सांसारिक दुखो से सामना नही करना पड़ता।
    अंत मे यह कहना चाहता हूँ कि मै सच्चा आस्तिक हु जिसे किसी अदृश्य शक्ति पर विश्वास है जिसने सम्पूर्ण ब्रह्मांड को बनाया(यह भी एक प्रश्न है कि ब्रह्मांड बनाने की क्या जरूरत थी)। मेरा उद्देश्य ईश्वर का व्यंग्य करना नही है।
    कृपया उतर अवश्य भेजे और आपसे विनती है कि उत्तर की एक कॉपी वाट्सअप या ईमेल पर भी अवश्य प्रेषित करें क्योकि ब्लॉग पर फिर ढूंढना मुश्किल है।
    वाट्सअप 971552645630
    ईमेल yuvrajjangid96@gmail.com
    आपके उतर की प्रतीक्षा में।
    युवराज जांगिड़।
    जय श्री राम।

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